Sunday 25 December 2011

रचनात्मक भागेदारी से ही आर्थिक स्वराज्य

संविधान संशोधन विधेयक पेश करते हुए राजीव गाँधी ने कहा था- 'हम यह सुनिश्चित करेंगे कि ग्रामीण जनता की आवाज, उनकी आवश्यकताएँ, आकांक्षाएँ और प्राथमिकताएँ पंचायतों के माध्यम से योजना भवन की निर्माण शिलाएँ बन सकें। हमें ऊपर से योजनाएँ थोपना बंद करना होगा। हमें प्राथमिकता निर्धारण की आकाशीय प्रणाली छोड़नी होगी, जिसका वास्तविक और व्यावहारिक धरातल से कोई संबंध नहीं होता। सत्ता के दलालों को सत्ता के घरों से बाहर निकालने के लिए पंचायतों को जनता को सौंपने के लिए हम उसे सबसे निर्धनतम और समाज के सभी सुविधाओं से वंचित वर्गों की ओर ध्यान देने की जिम्मेदारी देने जा रहे हैं।'

राजीव गाँधी की इस पहल पर प्रगति अवश्य हुई लेकिन यह सपना अधूरा है। ग्रामीण भारत में पंचायतों के चुनाव हुए हैं और कुछ राज्यों में महिलाओं, दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों ने भी पंचायतों के जरिए अपने गाँवों की दशा बदली है। महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, केरल, कर्नाटक, हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, अरुणाचल और असम की अनेक ग्राम पंचायतों ने कुछ विकास कार्यक्रमों में 'आदर्श' स्थापित किए हैं। पशु पालन, दुग्ध उत्पादन, मछली पालन, पीने का पानी, ईंधन, गोबर गैस या सौर ऊर्जा के क्षेत्रों में कई ग्राम पंचायतों ने अद्‌भुत काम करके दिखाया है लेकिन बहुत कुछ सफलता राज्य सरकारों की सक्रियता और ईमानदारी पर निर्भर करती है।

जिन राज्यों में सत्ताधारी नेताओं ने अपने निहित स्वार्थों के लिए पंचायतों के चुनिंदा प्रतिनिधियों को भी भ्रष्ट बनाया अथवा अफसरशाही ने ग्रामीण विकास योजनाओं में अड़ंगे लगाए, वहाँ आर्थिक संसाधनों की बर्बादी हुई। पूर्वोत्तर राज्य अरुणाचल, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड में तो पंचायतें बेहद सक्रिय और सफल हुई हैं। गैरसरकारी स्तर पर संघ तथा भारतीय जनता पार्टी के पुराने नेता स्वर्गीय नानाजी देशमुख ने चित्रकूट क्षेत्र में ग्रामीण विकास का मॉडल प्रस्तुत किया तथा सैकड़ों कार्यकर्ताओं को तैयार किया। अण्णा हजारे ने सेना से सेवानिवृत्ति के बाद नानाजी के चित्रकूट में शिक्षा-दीक्षा लेकर अपने रालेगणसिद्धि गाँव में विकास कार्यक्रमों को क्रियान्वित किया।

इसे दुर्भाग्य कहा जाएगा कि पिछले वर्षों के दौरान चित्रकूट, इलाहाबाद, वाराणसी, अयोध्या और मथुरा जैसे क्षेत्रों में भी गाँवों की हालत सुधरने के बजाय बिगड़ती गई। सुश्री मायावती के सत्ता काल में दलितों का आत्मविश्वास भले ही बढ़ा और राजधानी अच्छी सड़कों और बगीचों से चमक गई लेकिन भारी भ्रष्टाचार और अफसरों की मनमानी के कारण गाँवों की हालत खस्ता हो गई। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की संगठनात्मक कमजोरियों के कारण प्रतिपक्ष का समुचित दबाव भी सत्ता व्यवस्था पर नहीं रहा। समाजवादी पार्टी अंतर्कलहों में फँसी रहने के कारण समस्याओं के समाधान में कोई सार्थक योगदान नहीं दे पाई।

दसवीं पंचवर्षीय योजना में ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के लिए 77,776 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया लेकिन आज भी सड़क नेटवर्क, आवास, रोजगार और जलापूर्ति के मामलों में सैकड़ों गाँवों की हालत बदतर है। आज भी देश में 58 प्रतिशत से अधिक लोगों की आजीविका कृषि पर निर्भर है। निर्यात का भी 10 प्रतिशत हिस्सा इसी क्षेत्र से जाता है। गाँवों में रोजगार के लिए केंद्र सरकार ने हर साल लगभग 10 हजार करोड़ रुपए खर्च करने का प्रावधान किया लेकिन जिन क्षेत्रों में भ्रष्टाचार अधिक रहा, वहाँ ग्रामीणों को समुचित लाभ नहीं मिला। अब ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना की तैयारी है।

ऐसी स्थिति में ग्रामीण समस्याओं को अधिक व्यावहारिक ढंग से समझकर कार्यक्रम बनाने होंगे।

राहुल गाँधी ग्रामीण युवाओं को आकर्षित अवश्य कर रहे हैं लेकिन उन्हें विकास और रचनात्मक कार्यों से जोड़ने के लिए समर्पित राजनीतिक अथवा गैरराजनीतिक कार्यकर्ताओं की जरूरत होगी। यह काम चुनावी अभियान में नहीं हो सकता। असली अभियान हर जिले, विकासखंड और पंचायत स्तर तक नेटवर्क बनाकर ही हो सकता है। उत्तराखंड में कुछ गाँधीवादी स्वयंसेवी संगठनों ने पिछले वर्षों के दौरान पेयजल, साक्षरता तथा प्राथमिक स्वास्थ्य संबंधी अभियान चलाकर कई गाँवों में असाधारण काम किया है। ऐसे संगठनों ने सरकार से भी कोई सहायता नहीं ली।

उन्हें प्रचार की भूख भी नहीं होती। इसी तरह राजस्थान में सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राय और उनके सहयोगियों ने ग्रामीण जागरूकता के साथ रोजगार कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में अहम भूमिका निभाई है। राजस्थान का रेगिस्तानी इलाका हो या उत्तराखंड अथवा पूर्वोत्तर का पर्वतीय क्षेत्र - जमीन, जंगल और नदी के समुचित उपयोग का अधिकार ग्रामीणों को ही मिलना चाहिए। यह काम केवल सरकारी मशीनरी नहीं कर सकती। राजीव गाँधी ने 'विकास केंद्र' के नाम से कांग्रेस की ही एक बड़ी मशीनरी तैयार की थी और हर जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में विकास कार्यक्रमों के क्रियान्वयन की रिपोर्ट नियमित रूप से प्राप्त करने की अनूठी कोशिश की थी।

वैसा नेटवर्क अब किसी राजनीतिक दल का नहीं है। राहुल गाँधी सत्ता में आएँ या न आएँ, यदि वे ग्रामीण क्षेत्रों में इसी तरह की निगरानी मशीनरी खड़ी कर सकें, तो सत्ता व्यवस्था को सही दिशा में ले जाने का लाभ तो मिल ही जाएगा। ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकारों के प्रति जागरूकता तथा विकास में रचनात्मक भागेदारी से ही आर्थिक स्वराज्य का सपना साकार हो सकता है।
राहुल गाँधी सत्ता में आएँ या न आएँ, यदि वे ग्रामीण क्षेत्रों में इसी तरह की निगरानी मशीनरी खड़ी कर सकें, तो सत्ता व्यवस्था को सही दिशा में ले जाने का लाभ तो मिल ही जाएगा
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की चकाचौंध में शहरी युवाओं की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं पर लोगों का ध्यान अधिक जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा और स्वास्थ्य योजनाओं को सर्वोच्च प्राथमिकता देने से ग्रामीण युवाओं को मुख्यधारा से जोड़ा जा सकेगा। कट्टर सांप्रदायिक और नक्सली-माओवादी संगठन ग्रामीण क्षेत्रों के गरीब अशिक्षित युवाओं को ही भ्रमित कर हिंसक रास्तों पर भटकाते हैं। उत्तराखंड या पूर्वोत्तर राज्यों के ग्रामीण इलाकों में असली संस्कार ईमानदारी और धैर्य का ही है लेकिन विकास अवरुद्ध होने पर यही धैर्य टूटने लगता है।

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